भारतीय इतिहास में आंदोलन की परम्परा कोई नई बात नहीं है। यहां चाहे समाजिक विषमताओं को दूर करने के लिए आंदोलन करने की बात हो या राजनीति में तानाशाही के विरोध में आंदोलन करना, भारतीय जनमानस ने अपनी आवाज को इन सभी क्षेत्रों में मजबूती के साथ प्रखर किया है। बीते साल के अंतिम महीनों में शुरू हुए किसान आंदोलन भी अब अपने अंतिम चरम में पहुंचता नजर आ रहा है। केन्द्र सरकार द्वारा पास किए कृषि कानून के विरोध में शुरू हुआ यह आंदोलन गणतंत्र दिवस के मौके पर इतना ज्यादा हिंसक रूप धारण कर लेगा इसकी कल्पना भारतीय जनमानस ने शायद ही की होगी। यह देखना कितना ज्यादा दर्दनाक रहा कि कैसे किसान या कहें के किसानों के नाम की आड़ में उपद्रवियों ने हमारे पुलिस के जवानों पर दंडे, लाठी, तलवार, पत्थर आदि से हमला किया। किसानों और जवानों को लेकर जिस देश में ‘जय जवान जय किसान’ के नारे लगाए जाते रहे है। जहां किसानों को अन्नदाता माना जाता है उस देश में यदि किसानों की ऐसी छवि उकेरी जाएगी तो कैसे आम जनमानस उनके समर्थन में हाथ उठाएगा। यह कहना तो गलत नहीं होगा कि किसानों का यह आंदोलन यदि सफलता पूर्वक दो महीनों का सफर तय कर पाया तो उसका मुख्य कारण रहा जनता द्वारा पूर्ण समर्थन दिया जाना। इसलिए चाहे अपने द्वारा चुनी गई सरकार ने ही क्यों न यह कानून प्रस्तावित किया हो लेकिन जहां बात उस अन्नदाता की आती है तो आम जनता उस किसान के साथ ही खड़ा होता नजर आया। लेकिन गणतंत्र दिवस पर हुए हिसंक रोष प्रदर्शन के बाद जब किसानों को पुलिस के जवानों पर प्रहार करते देखा गया। लाल किले पर तिरंगे के साथ किसी धार्मिक पंथ का झंडा लहराते उपद्रवियों ने हमारी गरिमा को शर्मशार किया तो ऐसे में देश से बढ़कर शायद वह किसान भी नहीं हो सकता। ऐसा नहीं है कि इससे पहले किसानों द्वारा आंदोलन नहीं किया गया। न केवल आजादी के बाद बल्कि ब्रिटिश भारत में भी ऐसे कई सफल आंदोलन रहें जिनका नेतृत्व इन्ही किसानों ने किया। इतिहास के पन्नों को पलटकर देखा जाए तो ऐसे कई किसान आंदोलन रहें जिन्होंने न केवल आम जन मानस को आकर्षित किया बल्कि अपने आंदोलन की साथ देश की गरिमा का भी पूरा पूरा ख्याल रखा।
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1857 के स्वतंत्रता संग्राम के विद्रोह को बेशक अंग्रेजी हुकुमत द्वारा दबा दिया गया, लेकिन इसके बावजूद भारतीय जनता के दिल में जो विद्रोह की अग्नि प्रजज्वलित हुई उसे शांत कर पाना अब शायद नमुमकिन सा था। इसी का नतीजा रहा कि देश के अनेक हिस्सों में एक के बाद एक कई किसान आंदोलनों की शुरूआत हुई। जिसे अधिकांश किसान आंदोलन अंग्रेजों के विरोध में किए गए। इनकी आवाज को लिखित में रूप में अखबारों द्वारा प्रकाशित किया गया जिसमें किसानों पर होने वाले शोषण, सरकारी अधिकारियों के पक्षपातपूर्ण व्यवहार और किसानों के संघर्ष प्रमुखता के साथ प्रकाशित किए गए। हमारे इतिहास में नील विद्रोह, पाबना विद्रोह, तेभागा आंदोलन, चम्पारन सत्याग्रह, बारदोली सत्याग्रह, मोपाला विद्रोह ऐसे ही प्रमुख किसान आंदोलन रहें।
अंग्रेजी अधिकारियों द्वारा बंगाल और बिहार के जमींदारों से भूमि लेकर बिना पैसा दिए ही किसानों को नील की खेती करने के लिए विवश करना नील विद्रोह की सबसे बड़ा कारण रहा। यह आंदोलन उस समय के सबसे बड़ें आंदोलनों में एक रहा। किसानों को बहुत ही कम रकम देकर करारनामा कराया जाना भी इस विद्रोह को और चिंगारी दे रहा था। वही पाबना विद्रोह की बात करें तो जमीदारों की जाकतियों के विरोध में यह आंदोलन साल 1859 में पाबना जिलें के काश्तकारों द्वारा यह आंदोलन चलाया गया। अपनी ही भूमि पर अधिक लगान चुकाने और उसके अधिकार से भी वंचित करने के चलते किसानों का विरोध जमीदारों के प्रति बढ़ता ही चला गया। साल 1973 में पाबना के युसुफ सराय के किसानों ने मिलकर एक कृषक संघ बनाया, जो पैसे इकहठा कर सभाएं आयोजित करता था।
दक्कन के विद्रोह में महाराष्ट्र के पूना एंव अहमदनगर जिलों में गुजराती और मारवाड़ी साहूकारों के बढ़ते जुर्म और किसानों पर किए जाने वाले शोषण के कारण 1874 में शिरूर तालूका के करडाह गांव से किसानों ने साहूकारों के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। चूंकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना एंव महात्मा गांधी के भारतीय स्वंतत्रता संग्राम में प्रवेश के बाद भारत में कई बदलाव आए इसी का नतीजा रहा कि साल 1918 में होमरूल लीग के कार्यकर्ताओं के प्रयास तथा कई दिग्गजों के निर्देशन में उत्तर प्रदेश में ‘‘किसान सभा’’ का गठन किया गया। इसी के साथ अवध से किसान बैठकों का सिलसिला भी शुरू हो गया। साल 1920 मे बाबा रामचन्द्र द्वारा अवध किसान सभा का गठन किया गया। प्रतापगढ़ जिले का खरगांव किसानों की गतिविधियों का प्रमुख केंद्र बन गया। 1916 में महात्मा गांधी द्वारा बिहार के चम्पारन में चलाया गया चम्पारन सत्याग्रह किसानों में एक नई ऊर्जा शक्ति का विस्तार करने जैसा रहा। इसके बाद साल 1920 में केरल के मालाबार में मोपलाओं द्वारा अंग्रेजी हुकुमत के विरोध में आंदोलन किया गया। ऐसे ही अनेक आंदोलन भारत के किसी न किसी कोने से मुखर होते रहें। जिनमें से कुछ समय के साथ सफल होते चले गए तो कुछ की आवाज को दबा उन्हें कुचल दिया गया। हाल ही में किसान आंदोलन के विरोध में भी अब विद्रोह के स्वर उठने लगे है। खासकर तिरंगे और किसानों के अपमान के बाद
तो ये स्वर और भी ज्यादा तीव्र हो गए है। इसलिए अब इस आंदोलन की दिशा क्या रहेगी ये तो किसान नेताओं और सरकार के बीच के तालमेल पर ही निर्भर करता है।
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