पिछले दिनों कृषि कानून के विरोध में शुरू हुए किसान आंदोलन ने अपनी जडें मजबूत करना शुरू कर दिया है। आदोलन के व्यापक रूप में सामने आते ही भारत के किसान और केंद्रीय सरकार अब आमने सामने आ चुके है। अब न तो सरकार ये कानून वापस लेने पर विचार करती नजर आ रही है और न ही किसान इसके विरोध से पीछे हटने को तैयार नजर आ रहे है। हांलाकि हरियाणा और पंजाब के किसान भारी संख्या में इस आंदोलन का समर्थन करते दिख रहे है, पर चूंकि बात उस अन्नदाता की है, इसलिए आम जनमानस भी इस आंदोलन से खुद को अछूता नहीं रख सकता। आंदोलन चाहे जो भी हो जब आम जनता से जुड़ जाता है तो जन आंदोलन बनकर ही सामने आता है।
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हमारे लोकतंत्र की नींव ही जन आंदोलन के बीच पनपी है। 19वी और 20वी सदी के आरम्भिक वर्षो में भारत में किसान आंदोलन, सामाजिक आंदोलन, राजनैतिक आंदोलन और अन्य कई पर्यावरण सम्बंधी आंदोलन अपने अधिकारों की मांग के लिए दिनों-दिन बढ़ते जा रहे थे। इसमें न केवल निम्न वर्गीय लोग ही शामिल हुए अपितु मध्यम वर्गीय एंव उच्च वर्गीय लोगों ने भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया और आंदोलनों द्वारा अपने अधिकारों एंव लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयास किया।
यूं तो भारत में जाति, धर्म, प्रकृति, राजनीतिक, सामाजिक आदि आंदोलनों की घटनाओं से इतिहास भरा है। लेकिन उनमें कुछ आंदोलन ऐसे रहे जो इतिहास के पन्नों में अपनी अमिट छाप छोड़ गए चाहे उनका अंत सफल रहा हो या असफल। 1857 का सैनिक विद्रोह जिस दहकती हुई क्रांति के साथ शुरू हुआ उसका अंत उतना ही निराशाजनक रहा परन्तु उस आंदोलन ने भारतीय जनमानस के सीने में स्वतंत्रता की ऐसी आग प्रज्जवलित की जिसने आजादी के स्वप्न को जीवंत करने का रास्ता हमारे सामने रख दिया।
सन 1857 के असफल विद्रोह के बाद विरोध का मोर्चा किसानों ने ही संभाला, क्योंकि अंग्रेजों और देशी रियासतों के सबसे बडें आंदोलन उनके शोषण से उपजे थे। वास्तव में जितने भी किसान आंदोलन हुए उनमें अधिकांश आंदोलन अंगे्रजो के खिलाफ थे। या कहा जाए कि ब्रिटिश हुकूमत से आजादी के लिए 1857 से 1947 तक कई जन आंदोलन चले जिसमें 1857 का विद्रोह, भारतीय राष्र्टीय कांग्रेस, बंगाल विभाजन, महात्मा गांधी की वापसी, जलियावाला बाग नरसंहार, असहयोग आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन आदि ।
आंदोलन की शुरूआत चाहे कितनी बड़ी हो या छोटी उसका अंत उसका आधार तय करता है। 1857 का विद्रोह जितना व्यापक रहा उसका अंत बेसक हमारी असफलता से हुआ पर आजाद भारत की नीवं जरूर स्थापित कर दी। वही असहयोग आंदोलनका स्तर भी उतना ही व्यापक रहा। जलियावाला बाग नरसंहार सहित अनेक घटनाओं के बाद गांधी जी ने अनुभव किया कि ब्रिटिश हाथों से एक उचित न्याय मिलने की कोई संभावना नहीं है। इसलिए उन्होंने ब्रिटिश सरकार से राष्ट्र के सहयोग को वापस लेने की योजना बनाई और यह आंदोलन चलाया गया।
यही चेतना हमारे इतिहास की अन्य घटनाओं में भी दिखती है। महात्मा गांधी के आगमन के पश्चात आदोलनों में हिंसा का स्थान अहिसं ने ले लिया नरम और गरम दल का विभाजन भी इसी के चलते देखा गया। हालांकि क्रांतिकारी भगत सिंह, लाला लाजपत राय आदि कई स्वतंत्रता सेनानी इसी गरम दल में होने के बावजूद आजादी के इस आंदोलन में पीछे नहीं हटे। पर जो आधार महात्मा गांधी ने रखा उसका कोई दूसरा विकल्प आज हमारे समक्ष इतना मजबूती से खड़ा हुआ दिखाई नहीं देता। जेपी नारायण का जन आंदोलन इसी का प्रत्यक्ष रूप था।
2012 में हुए निर्भया मामले के बाद भी व्यापक जन आक्रंोश सड़कों पर उतरता नजर आया। महिलाओं की सुरक्षा के लिए छोटे स्तर पर चला यह आंदोलन इतना व्यापक हो गया। परन्तु फिर भी महिला सुरक्षा हमारे समक्ष एक प्रश्न चिन्ह के रूप में आज भी खड़ा हैं। कृषि कानून के विरोध में सड़कों पर उतरे किसान भी कितने समय तक इस आंदोलन को मजबूती दे सकते है ये अपने आप में एक बड़ा सवाल है।
ये कहना गलत नहीं होगा कि भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का योगदान अतुलनीय रहा है. यहां किसानों को अन्नदाता के रूप में देखा जाता है. ‘जय जवान जय किसान’ जैसा नारा इसका प्रमाण हैं. ठिठुरती ठंड के बीच भी किसानों का प्रदर्शन सिंधु. टिहरी बॉर्डर एंव यूपी गेट पर जारी है. अब सुप्रीम कोर्ट को स्वंय इस आंदोलन पर संज्ञान लेना पड़ रहा है. ंइंतजार अब इस बात का रहेगा कि केंद्र सरकार किसानों के मन में उपजे प्रश्नों को हल कर इस आंदोलन को समाप्त करवाए ताकि किसान सड़को से उठ वापस खेत- खलियानों में हसंता नजर आए.
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